1.  ईश्वर सत्य और ज्ञान के पर्याय हैं

वेनस्तत् पश्यत् परमं गुह्य  यद् यत्र विश्वं भवत्येकरूपम् ।

इदं पृश्निरदुहज्जायमाना:स्वर्विदो अभ्यनूषत व्रा: ॥

अथर्ववेद- कांड-2 सूक्त-1 - मंत्र- 1


संधि विच्छेद के बाद –

वेनः तत् पश्यत् परमं गुह्य यद् यत्र विश्वं भवति एक रुपम् ।

इदं पृश्निः अदुहत् जायमाना: स्वर्विदो अभी अनूषत व्रा: ॥


शब्दार्थ –

वेनः -ज्ञानी, तत् -उस को, पश्यत् - साक्षात् करता है, देखता है, परमम् -सर्वोत्कृष्ट है, यत् – जो, गुह्य -हृदयरुप गुहा में आसीन है, यत्र – जिसमें, विश्वम् -यह सारा संसार, एकरुपं – एकरूप, एकाकार, भवति - हो जाता है, जायमाना: -जन्म देती हुई, पृश्निः -यह प्रकृति, इदम् – इसे, अदुहत् -अपने में से दूहती है, ब्राः -वरण करने वाले जीवगण, स्वर्विदः -आकाश में प्रकाशित तारे, अभी अनूषत -स्तुति करते है  । 


भावार्थ –

गुह्य (ह्रदय रूप और ब्रह्माण्ड रूप गुहा) में जो (सत्य, ज्ञान आदि लक्षण वाला) ब्रह्म है, जिसमे समस्त जगत (प्रलय काल में) विलीन हो जाता है, उस श्रेष्ठ परमात्मा को ज्ञानी जन देखते है । (ब्रह्म का ही एक रूप यह) प्रकृति (उसी ब्रह्म का) दोहन करके  (नाम-रूप वाले भौतिक) जगत को उत्पन्न करती है । आत्मज्ञानी जन और सारा ब्रह्माण्ड (उस सृष्टिकर्ता परब्रह्म की) स्तुति करते हैं ।


2.  विश्व का निर्माण  ईश्वरीय शक्ति से हुआ

ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमत: सुरुचो वेनऽ आव: ।

स बुध्न्याऽ उपमाऽ अस्य विष्ठा: सतश्च योनिमसतश्च वि व: ॥

यजुर्वेद- अध्याय-13 - मंत्र- 3


संधि विच्छेद के बाद -

ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्तात् वि सीमत: सुरुचो वेन आव: ।

स बुधन्या उपमा अस्य विष्ठा: सतः च योनिम् असतः च वि व: ।।


शब्दार्थ -

पुरस्तात्- सृष्टि के आरम्भ में, जज्ञानं- सबका उत्पादक और ज्ञाता,  प्रथमं- विस्तृत और विस्तारकर्ता, ब्रह्म- ईश्वरीय शक्ति, वेन - सूर्य जैसे  कान्त मान ईश्वरीय शक्ति, सीमतः -समस्त लोकों में व्यवस्था के रूप में व्याप्त हो कर, पूरे ब्रह्मांड के निर्माण करते हुए, सुरुचः- समस्त रुचिकर तेजस्वी सूर्यो को, वि आवः-विविध रूपों में प्रकट करता है, सः- वह, अस्य- इस के, उपमा-बतलाने वाले निदर्शक, विष्ठा-नाना स्थलों में और नाना रूपों में स्थित, बुधन्या-आकाशस्थ लोकों (सूर्य-चंद्र-पृथ्वी-नक्षत्र व सम्पूर्ण ब्रह्मांड) को भी,  सतः - इस व्यक्त जगत के, च -और , असतः - अव्यक्त मूल कारण के, च -और , योनिम् -आश्रय स्थल को, वि वः-प्रकट करता है । 

 

भावार्थ  –

सृष्टि के आरम्भ में सबके उत्पादक और ज्ञाता, विस्तृत (महान) और विस्तारकर्ता, ईश्वरीय शक्ति (ब्रह्म), वह सूर्य जैसे  कान्त मान समस्त लोकों में व्यवस्था के रूप में व्याप्त हो कर (पूरे ब्रह्मांड का    निर्माण करते हुए), समस्त रुचिकर तेजस्वी सूर्यो को विविध रूपों में प्रकट करता है । वह (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) इस (जगत) के बतलाने वाले निदर्शक, नाना स्थलों में और नाना रूपों में स्थित, आकाशस्थ लोकों (सूर्य-चंद्र-पृथ्वी-नक्षत्र व सम्पूर्ण ब्रह्मांड) को भी और इस व्यक्त जगत के और अव्यक्त मूल कारण के आश्रय स्थल (आकाश) को भी प्रकट करता है ।


3.  वह ईश्वरीय शक्ति ही सृष्टि की हर रचना के भीतर है

प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते ।

तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा ।।

यजुर्वेद- अध्याय-31 - मंत्र- 19


संधि विच्छेद के बाद –

 प्रजाऽपतिः चरति गर्भे अन्तः अजायमानः बहुधा वि जायते ।

तस्य योनिम् परि पश्यन्ति धीराः तस्मनि् ह्॒ तस्थुः भुवनानि विश्वा ॥


शब्दार्थ –

अजायमानः -अपने स्वरूप से उत्पन्न नहीं होने वाला, अजन्मा, प्रजापतिः -प्रजा का पालक रक्षक, जगदीश्वर, गर्भे –गर्भ में स्थित,  गर्भस्थ जीवात्मा में, अन्तः -अंदर, सबके हृदय में, चरति -विचरता है, विद्यमान है, बहुधा -बहुत प्रकार से, वि -विशेष, विशेष रूपों में,  जायते - उत्पन्न होता है, प्रकट होता है, तस्य – उसके, योनमि् -स्वरूप को, धीराः -ध्यानशील जन, परि - सब ओर से, पश्यन्ति -देखते हैं, तस्मिन् –उसमें, ह – प्रसिद्ध , विश्वा –सब, भुवनानि -लोक-लोकान्तर, तस्थुः -स्थित हैं ।


भावार्थ  –

प्रजापालक परमात्मा गर्भ में स्थित जीवात्मा में और सबके हृदय में विद्यमान है, वह अजन्मा होकर भी अनेक रूपों में प्रकट होता है । उस (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) की कारण शक्ति में संपूर्ण भुवन समाहित है । ज्ञानी-जन उनके मुख्य स्वरूप को सब ओर देख पाते हैं ।


4.   ईश्वरीय शक्ति सबसे भिन्न होकर भी सबके भीतर प्रतिष्ठित हैं

न तं विदाथ यऽ  इमा  जजानान्य्ध्युप्माक्मन्तरं  बभूव ।

निहारेण प्रावृत्ता  जल्प्यां  चासुतृप  ऽ  उक्थ्शासंश्चरन्ति ।।       

यजुर्वेद- अध्याय-17 - मंत्र- 31

 

संधि विच्छेद के बाद –

न तम् विदाथ यः इमा  जजान अन्यत  युष्माकम्   अन्तरम्  बभूव  ।

निहारेण प्रावृत्ताः जल्प्यां  च असुतृपः  उक्थ्शाशः चरन्ति ।।    


शब्दार्थ –

उष्माकंम् - तुम लोगों के, अन्तरम् - भीतर, बभूव - रहता है, निहारेण - कुहरे के समान अन्धकार से,  प्रावृत्ताः - अच्छे प्रकार से ढके हुये,   जल्प्यां - केवल बातें कहने वाले, च -और, असुतृपः - मात्र प्राण-रक्षण  व पोषण लेकर संतुष्ट रहने वाले, उक्थ्शाशः - शब्द-अर्थ के खण्डन-मण्डन में व्यस्त, चरन्ति  - विचरते है ।


भावार्थ  – 

उस को (परमात्मा को) नही जान पाता, जो इन को (प्रजा को) उत्पन्न करता है, जीव-जगत से भिन्न होकर भी, तुम लोगों के ही भीतर रहता है ।  कुहरे के समान (अज्ञान के व्यापक) अन्धकार से अच्छे प्रकार से ढके हुये,  केवल बातें कहने वाले और मात्र प्राण-रक्षण  व पोषण लेकर संतुष्ट रहने वाले शब्द-अर्थ के खण्डन-मण्डन में व्यस्त विचरते है ।


5.   ईश्वरीय शक्ति ने सारी सृष्टि को अंदर- बाहर, सब ओर से व्याप्त किया हुआ है

तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः।।

यजुर्वेद- अध्याय-40 - मंत्र-5


संधि विच्छेद के बाद –

तत् एजति  तत् न एजति  तत्  दू॒रे तत्  अन्तिके ।

तत् अन्तः अस्य सर्व॑स्य तत् उ सर्व॑स्य अस्य बाह्यतः ॥


शब्दार्थ –

तत् -वह, एजति –क्रिया करता है, तत् – वह, न - नहीं, एजति - क्रिया करता है, तत् –वह, दूरे –दूर है, तत् –वह, अन्तिके –समीप है, तत् –वह, अस्य –इस, सर्वस्य -सब जगत् वा जीवों के, अन्तः –भीतर है, उ –ही, तत् –वह, अस्य - इस के, सर्वस्य - सब जगत् वा जीवों के, बाह्यतः -बाहर है ।


भावार्थ  – 

वह (ब्रह्म) क्रिया करता (भी प्रतीत होता) है, (लेकिन) वह नहीं क्रिया करता (भी प्रतीत होता) है, वह (अधर्मात्मा अविद्वान से) दूर (होता) है, वह (धर्मात्मा विद्वान के) समीप (होता) है । वह इस सब जगत् वा जीवों के भीतर ही है, वह इस के सब जगत वा जीवों के बाहर भी (विद्यमान) है (वह सर्वव्यापक है)।  


6.  ईश्वर सारी सृष्टि के निर्माता और साथ ही पालक भी हैं

पूर्णात् पूर्णमुदचति  पूर्ण पूर्णेन सिच्यते ।

उतो तदद्य विद्याम यतस्तत् परिषिच्यते ।।

अथर्ववेद- कांड-10 सूक्त-8 - मंत्र- 29


संधि विच्छेद के बाद –

पूर्णात् पूर्णम्  उदचति पूर्ण पूर्णेन सिच्यते ।

उतो तद् अद्य विद्याम यतः तत् परिषिच्यते ।।


शब्दार्थ –

पूर्णात्  -पूर्ण से, पूर्णम्  -पूर्ण, उदचति - उत्पन्न होता है, उदगात होता है, पूर्णम् -न्यूनतारहित, पूर्णेन -पूर्ण (प्रभु) के द्वारा, सिच्यते - सींचा जाता है । उतो -निश्चय से, अद्य -आज, तद् -उस को, विद्याम -जानें, यतः -जिसके द्वारा, तत् -वह, परिषिच्यते -सींचा जाता है ।


भावार्थ –

पूर्ण (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) से (यह) पूर्ण (जगत) उत्पन्न होता है, (और) (वह) न्यूनतारहित (जगत) पूर्ण (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) के द्वारा सींचा जाता ( पालन किया जाता) है । (और) निश्चय से आज (हम) उस (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) को जानें जिसके द्वारा वह (ब्रह्माण्ड की सृष्टि) सींचा जाता ( पालन किया जाता) है ।


7.   सृष्टि रचयिता  ईश्वरीय शक्ति एक और केवल एक ही हैं- मन्त्र-1

न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते । य एतं देवमेकवृतं वेद ।।  

न पञ्चमो न षष्ठः सप्तमो नाप्युच्यते । य एतं देवमेकवृतं वेद ।।  

नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते । य एतं देवमेकवृतं वेद ।।  

अथर्ववेद- कांड-13 सूक्त-5-मन्त्र-3,4,5


संधि विच्छेद के बाद –

न द्वितीयः न तृतीयः चतुर्थः न अपि उच्यते । य एतं देवमेकवृतं वेद ।।  

न पञ्चमः न षष्ठः सप्तमः न अपि उच्यते । य एतं देवमेकवृतं वेद ।।  

न अष्टमः न नवमः दशमः न अपि उच्यते । य एतं देवमेकवृतं वेद ।।  


शब्दार्थ –

ये - जो, एतं -इस, देवम् -प्रकाशमय प्रभु को, एकवृतं -एकत्वेन वर्तमान, एकरूप में वर्तमान,  वेद -जानता है । न -न, द्वितीयः -दूसरा, न -न, तृतीयः -तीसरा, न -न, चतुर्थः -चौथा, अपि - ही, उच्यते -कहा जाता है । ये - जो, एतं -इस, देवम् -प्रकाशमय प्रभु को, एकवृतं -एकत्वेन वर्तमान, एकरूप में वर्तमान,  वेद -जानता है । न -न, पञ्चमः -पाँचवाँ, न -न, षष्ठः -छठा, न -न, सप्तमः -सातवाँ, अपि - ही, उच्यते -कहा जाता है । ये - जो, एतं -इस, देवम् -प्रकाशमय प्रभु को, एकवृतं -एकत्वेन वर्तमान, एकरूप में वर्तमान,  वेद -जानता है । न -न, अष्टमः -आठवाँ, न -न, नवमः -नौवा,  न -न,  दशमः -दसवाँ, अपि -ही, उच्यते -कहा जाता है  ।


भावार्थ –

जो इस प्रकाशमय प्रभु को एकरूप में वर्तमान जानता है, (व जानता है कि वह प्रभु) न दूसरा न तीसरा (और) न चौथा ही कहा जाता है । न पाँचवाँ न छठा न सातवाँ ही कहा जाता है । न आठवाँ न नौवा (और) न दसवाँ ही कहा जाता है (क्योंकि वो प्रभु एक हैं और एक ही हैं) ।


8.  सृष्टि रचयिता  ईश्वरीय शक्ति एक और केवल एक ही हैं- मन्त्र-2

तमिदं निगतं सह  स एष एक एकवृदेक एव । य एतं देवमेकवृतं वेद ॥

सर्वे अस्मिन् देवा एकवृतो भवन्ति । य एतं देवमेकवृत्तं वेद ॥

अथर्ववेद- कांड-13 सूक्त-5 - मंत्र- 7,8


संधि विच्छेद के बाद –

तम्  इदं निगतम् सः एषः एकः एकवृतः एकः एव । यः एतं देवम् एकवृतं वेद ॥

सर्वे अस्मिन् देवाः एकवृतः भवन्ति । यः एतं देवम् एकवृतं वेद ॥


शब्दार्थ –

तम्  -उस को, उन को, इदं सः -यह शत्रुमर्षक बल, निगतम् -निश्चय से प्राप्त है । सः -वे, एषः -ये, एकः -एक हैं, एकवृत् -एकत्वेन एकाकार रूप में वर्तमान हैं, एकः -एक, एव -ही हैं, । यः - जो भी, एतं देवम् - इस प्रकाशमय प्रभु को, एकवृतं - एकत्वेन एकाकार रूप में वर्तमान, वेद -जानता है । सर्वे –सब, देवाः -देव, अस्मिन् -इस में, एकवृतः -एक आधार में, भवन्ति -वर्तमान होते हैं । यः -जो भी, एतं देवम् -इस प्रकाशमय प्रभु को, एकवृतं - एकत्वेन एकाकार रूप में वर्तमान, वेद -जानता है ।


भावार्थ –

उन को (सृष्टिकर्ता परमेश्वर को) यह (शत्रुमर्षक बल) निश्चय से प्राप्त है । वे ये (अद्वितीय प्रभु) एक हैं, एकत्वेन एकाकार रूप में वर्तमान हैं (और) एक ही हैं । जो भी  इन को  (प्रकाशमय प्रभु को) एकत्वेन एकाकार रूप में वर्तमान जानता है (केवल वह ही सृष्टिकर्ता परमेश्वर को जान पाता है)। सब (सूर्यादि) देव इस में (प्रभु में) एक आधार में वर्तमान होते हैं । जो भी इस को  (प्रकाशमय प्रभु को) एकत्वेन एकाकार रूप में वर्तमान जानता है (केवल वह ही सृष्टिकर्ता परमेश्वर को जान पाता है)।


9.  एक ही सृष्टिकर्ता परमेश्वर विभिन्न देवताओं का नाम व रूप ग्रहण करते हैं- मन्त्र-1

इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाअहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान् ।

एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु: ॥

ऋग्वेद- मण्डल -1 सूक्त-164 - मंत्र- 46


संधि विच्छेद के बाद –

इन्र्द्रम्  मित्रम्  वरुणम् अग्निम् आहुः अथो इति दिव्यः सः सुऽपर्णः गरुत्मान् एकम् सत् विप्राः बहुधा वदन्ति अग्निम् यमम् मातरिश्वानम् आहुः ।


शब्दार्थ –

विप्राः - ज्ञानी जन, जो अपने को उत्तम भावनाओं से भरना चाहते हैं (वि+प्रा - भरना), इन्द्रम् -   सर्वैश्वर्यशाली, मित्रम् - सबके प्रति स्नेहमय, वरुणम् -श्रेष्ठ, अग्निम् -सबसे अग्रस्थान में स्थित, अग्रणी, आहुः - कहते हैं, अथ उ –और, सः -वह, दिव्यः - प्रकाशमय, सुपर्णः -पालन आदि महान कर्मों को करने वाले, गरुत्मान् - ब्रह्माण्ड के महान भार को उठाने वाले, एकम् – एक, सत् - सत्यरूप परमेश्वर,  बहुधा –भिन्न-भिन्न से, वदन्ति -कहते हैं, अग्निम् -आगे ले चलने वाली, यमम् – सर्वनियन्ता, मातरिश्वानम् -सारे अंतरिक्ष में व्याप्तमान, आहुः - कहते हैं, इति - वाक्य समाप्ति सूचक शब्द ।

 

भावार्थ  –

ज्ञानी जन (सृष्टिकर्ता या ब्रह्म को) सर्वैश्वर्यशाली, सबके प्रति स्नेहमय, श्रेष्ठ सबसे अग्रस्थान में स्थित कहते हैं, और, वह प्रकाशमय, पालन आदि महान कर्मों को करने वाले,  ब्रह्माण्ड के महान भार को उठाने वाले, एक  ही सत्यरूप परमेश्वर (को) भिन्न-भिन्न (नामों) से कहते हैं, (उन एकमात्र सृष्टिकर्ता या ब्रह्म को) आगे ले चलने वाले, सर्व नियन्ता, सारे अंतरिक्ष में व्याप्तमान कहते हैं ।


10.  एक ही सृष्टिकर्ता परमेश्वर विभिन्न देवताओं का नाम व रूप ग्रहण करते हैं- मन्त्र-2

तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता आपः स प्रजापतिः।।

यजुर्वेद- अध्याय-32 - मंत्र-1


संधि विच्छेद के बाद –

तत् एव अग्निःतत् आदत्यिः तत् वायुः तत् ऊँ इत्यूँ चन्द्रमाः ।

तत् एव शुक्रम् तत् ब्रह्म ताःआपःसः प्रजाऽपतिः इति  प्रजाऽपतिः।।


शब्दार्थ –

तत् – वह, एव – ही, अग्निः – स्वयंप्रकाशित, सर्वत्र सर्वप्रकाशक, आगे ले-चलने वाले अग्नि है, तत् - वह, आदित्य: - सूर्य के समान तेजस्वी और समस्त संसार को प्रलय काल में अपने अन्दर लय करने वाले आदित्य है, तत् – वह, वायुः - अनन्त बलवान, सर्वप्राण एवं व्यापक होने से वायु है,  तत् – वह, उ – निश्चय ही, चन्द्रमाः - आनन्दित करने वाले चन्द्रमा है, तत् – वह, एव - ही, शुक्रम्ः -शुचि व उज्ज्वल शुक्र है, तत् – वह, ब्रह्मः – सबसे महान बृहत् ब्रह्म है, ताः – वे, आपः –सर्वव्यापक जल है, (आप् =व्याप्तौ), सः –वह, प्रजापतिः - समस्त प्रजाओं पालन व रक्षा करने वाले प्रजापति है । 


भावार्थ  –

वही एक सृष्टिकर्ता परमेश्वर  ही भिन्न भिन्न रूपों में हमारे सामने आते हैं, उस का ही नाम अग्नि है, वही सूर्य हैं, वही वायु हैं, वही चन्द्रमा हैं, वही शुक्र हैं, वही ब्रह्म हैं, वही जल हैं, वही प्रजापति हैं ।


11.  एक ही सृष्टिकर्ता परमेश्वर विभिन्न देवताओं का नाम व रूप ग्रहण करते हैं- मन्त्र-3

यो न: पिता जनिता यो विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा ।

यो देवानां नामधा ऽएक ऽएव तं सम्प्रश्नं भुवना यन्त्यन्या ॥ 

यजुर्वेद- अध्याय-17 - मंत्र- 27


संधि विच्छेद के बाद –

यः न: पिता जनिता यो विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा ।

यः देवानां नामधा ऽएक ऽएव तं सम्प्रश्नं भुवना यन्त्यन्या ॥ 


शब्दार्थ –

यः - जो, न: - हमारा, पिता - जन्मदाता, जनिता - सब पदार्थों को उत्पन्न करने वाला, यो - जो,  विधाता - जगत का निर्माण तथा कर्मों के अनुसार फल देने वाला, विश्वा - समस्त, भुवनानि - लोकों, धामानि -जन्म, स्थान व नाम, वेद – जानता, यः -जो,  देवानां - देवों के, नामधा -नाम को धारण करने वाला, एक - एक, एव - ही, तं – उस को, सम्प्रश्नं - जानने योग्य को, अन्या - दुसरे, भुवना – लोक, सभी पदार्थ, यन्ति - जाते हैं ।   


भावार्थ  –

जो (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) हमारा जन्मदाता, सब पदार्थों को उत्पन्न करने वाला है, जो जगत का निर्माण तथा कर्मों के अनुसार फल देने वाला है, समस्त लोकों जन्म, स्थान व नाम को जानता है । जो (अलग-अलग नामों से पुकारे जाने के बावजूद समस्त) देवों के नामों को धारण करने वाला एक ही है, उस जानने योग्य प्रभु को दूसरे लोक (क्षेत्रों / सभ्यताओं) व सभी पदार्थ (भौतिक वस्तुएं और प्राणी समुदाय और हम मनुष्य भी)  अंतत: (केवल) उन को ही (प्राप्त हो) जाते हैं  । 


12.  सृष्टिकर्ता ईश्वर के विराट स्वरुप को किसी एक छवि द्वारा दिखाना  संभव नहीं है

न तस्य प्रतमिा अस्ति यस्य नाम महद्यशः ।

हिरण्यगर्भऽ इत्येष मा मा हिन्सीदित्येषा यस्मान्न जातऽ इत्येषः ।।

यजुर्वेद- अध्याय-32 - मंत्र-3


संधि विच्छेद के बाद –

न तस्य  प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महत् यशः ।

हिरण्यगर्भः इति एषः मा मा हिंसित् इति एषा यस्मात् न जातः इति एषः ।।


शब्दार्थ –

न –नहीं, अस्ति –है,  तस्य -उस (परमेश्वर) की, प्रतिमा – मूर्ति या प्रतिकृति, यस्य – जिसकी, नाम – प्रसिद्धि,  यशः –कीर्त्ति, महत् – बहुत बड़ी, एषः – वह, , इति -इस प्रकार, हिरण्यगर्भः - सूर्यादि प्रकाशमान लोकों को धारण करने वाला, मा –मुझको, मा – मत,  हिंसीत् -ताड़ना दे या अपने से मुझ को विमुख मत करे, इति -इस प्रकार, एषा –यह, यस्मात् -जिस कारण, न –नहीं, जातः - जन्मा, इति -इस प्रकार, एषः -यह  ।


भावार्थ  –           

जिस सृष्टिकर्ता परमेश्वर को (महिमा का वर्णन करते हुए) सूर्यादि प्रकाशमान लोकों को धारण करने वाला (कहा गया) है, यह अनादि अजन्मा (कहा गया) है, यह अपने से हमें मत विमुख करे (इस प्रकार प्रार्थना किया गया है), जिसकी  प्रसिद्धि, कीर्त्ति बहुत बड़ी है, (लेकिन) उस (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) की तुल्य (कोई भी एक विशेष) मूर्ति या प्रतिकृति नहीं है (क्योंकि सृष्टि में स्थित हर चीज उसी एक ईश्वर का ही रूप या प्रतिकृति हैं) ।


13.  वही एक ईश्वर  ही सर्वत्र जन्म ले रहे हैं

एषो ह देव: प्रदिशोनु सर्वा: पूर्वो ह जात: स उ गर्भे अन्त:  ।

स एव जात: स जनिष्यमाण: प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सर्वतोमुख: ॥

यजुर्वेद- अध्याय-32 - मंत्र- 4


संधि विच्छेद के बाद –

एषःह देवः प्रऽदशिः अनु सर्वाःपूर्वः  ह जातः स उ गर्भे अन्त:  ।

सः एव जातः सः जनिष्यमाणः प्रत्यङ् जनाः तिष्ठति सर्वतोमुख: ।।

 

शब्दार्थ –

हे जनाः – मनुष्यों, ह –निश्चय से, एषः –यह, देवः -उत्तम स्वरूप, सर्वाः –सब,  प्रदशिः - दिशा उपदिशाओं में, अनु -अनुकूलता से साथ साथ,  व्याप्त होके, पूर्वः - भूतकाल में कल्प के आदि में सर्व प्रथम, ह – निश्चय ही, जातः -प्रकटता को प्राप्त होना, सः – वह, उ –ही, गर्भे - अभी जन्म के लिए माता के गर्भ में, अन्तः – अंदर, भीतर,  सः – वह, एव –ही, जातः - प्रकटता को प्राप्त होना, सः –वह, जनिष्यमाणः - भविष्य में भी प्रकट प्रकट होने वाले हैं, सर्वतोमुखः -सब ओर से मुखादि अवयवों वाला अर्थात मुखादि इन्द्रियों के काम सर्वत्र करता हुआ, सबका द्रष्टा,  प्रत्यङ् -प्रत्येक पदार्थ को व्याप्त होकर प्राप्त हुआ, प्रत्येक पदार्थ की आत्मा में, तिष्ठति -स्थिर है, अवस्थित हैं ।


भावार्थ  –

यह उत्तम स्वरूप (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) निश्चय से सब दिशा उपदिशाओं में व्याप्त हैं । भूतकाल में कल्प के आदि में निश्चय ही सर्व प्रथम  प्रकट हुए (थे) । वह ही (अभी) जन्म के लिए माता के गर्भ में अंदर हैं, वह ही (वर्त्तमान में भी) प्रकट (हो रहे) हैं (और) भविष्य में भी (सदा) वह (ही) प्रकट होने वाले हैं। हे मनुष्यों ! (वह) सबका द्रष्टा, प्रत्येक पदार्थों में (जड़-चेतन- प्राणी मात्र व मनुष्यों में भी) व्याप्त होकर अवस्थित है ।


14.  हम आत्मरूप में उसी ईश्वर के ही रूप हैं

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।

योसावादित्ये पुरुष: सोसावहम् ओ३म् खं ब्रह्म ॥

यजुर्वेद- अध्याय-40 - मंत्र- 17


संधि विच्छेद के बाद –

हिरण्मयेन पात्रे॑ण सत्यस्य अपिहितम् मुखम् ।

यःअसौ आदित्ये पुरुषः सः असो अहम् ओ३म् खम् ब्रह्म ॥


शब्दार्थ –

हरिण्मयेन – सोने जैसे ज्योतिःस्वरूप स्वर्णिम, पात्रेण -रक्षक पात्र से, सत्यस्य - अविनाशी सत्य का, अपिहितम् - ढका हुआ है, मुखम् -मुख, यः -जो, असौ -वह, आदत्यिे - सूर्य्यमण्डल में, पुरुषः -पूर्ण परमात्मा, सः -वह, असो – परोक्ष रूप से, अहम् - मैं, खम् - संपूर्ण ब्रह्माण्ड, ब्रह्म -परम शक्ति, ओ३म् -  ॐ , सबके रक्षक का नाम ।


भावार्थ  –

सोने जैसे ज्योतिःस्वरूप स्वर्णिम रक्षक पात्र (आवरण) से अविनाशी सत्य (आत्म और परमात्म तत्व) का मुख ढका हुआ है । (ऐसे सुनहरे पात्र के मुख का आवरण  हटने पर यह पता लगता हैं कि) वह जो  सूर्य मण्डल में पूर्ण परमात्मा (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) (हैं), वह परोक्ष रूप से (आत्म रूप से) मैं हूँ । संपूर्ण ब्रह्माण्ड में वही परम शक्ति सबके रक्षक का नाम “ओ३म्” (संव्याप्त हैं) ।


15.   ईश्वर की वंदना करने का एक मात्रा उद्देश्य ईश्वर द्वारा सत्य के मार्ग की ओर प्रेरित होना है

ॐ भूर्भुवःस्वः । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात्

यजुर्वेद- अध्याय-36 - मंत्र- 3


संधि विच्छेद के बाद –

ॐ भूः भुवः स्वः । तत् सवितु:  वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।


शब्दार्थ –

ॐ  - सबके रक्षक का नाम, भूः –पृथ्वी, भुवः - पृथ्वी के ऊपर का विश्व, स्वः -स्वयं का, मेरा, तत् –उसने, सवितु: -सूर्य से निर्गत, र्वरेण्यं -पूजा करना चहिये, या, पूजाके योग्य, भर्गो –दीप्तिमान, देवस्य –प्रभुका, धीमहि –ध्यान करे, धियो –बुद्धि, यो –जो, नः –हमारी, प्रचोदयात् -प्रेरित करे ।


भावार्थ  –

संपूर्ण सृष्टि को सूर्य से (निर्गत प्रकाश से) दीप्तिमान करने वाले, पूजनीय प्रभु का (हम) ध्यान करते हैं, वे (प्रभु) हमारी बुद्धि को (सत की ओर) प्रेरित करें ।


16.  ईश्वर के साथ हमारा जन्मदाता और संतान जैसा स्नेह और विश्वास का संबंध है- मन्त्र-1

स न: पिता जनिता स उत बन्धुर्धामानि वेदभुवनानि विश्वा ।

यो देवानां नामध एक एव तं संप्रश्नं भुवना यन्ति सर्वा ।।

अथर्ववेद- कांड-2 सूक्त-1 - मंत्र- 3


संधि विच्छेद के बाद –

सः न: पिता जनिता सः उत बन्धुः धामानि वेद भुवनानि विश्वा ।

यो देवानां नामध एक एव तं संप्रश्नं भुवना यन्ति सर्वा ।।


शब्दार्थ –

सः –वह, नः – हमारे, पिता –पालक, जनिता - जन्म देने वाले, उत्पादक, स – वह, उत –ही,  बन्धुः -सबको प्रेम में बांधने वाले, मित्र, सहायक, विश्वा –समस्त, धामानि – सामर्थ्यों  , स्थानों, नामों और मूल कारणों को, भुवनानि -समस्त लोंको, पदार्थों  को, वेद - जानते है,। यः –जो, देवानां - समस्त देवों के, नामधः -नामों को धारण करने वाले, एक –एक, अद्वितीय, एव् - ही है । संपश्रं -उत्तम रीति से प्रश्न पूछने के लिए, तं -उस को, सर्वा -समस्त, भुवना - लोक और समस्त भूत वर्ग, यान्ति - जाते हैं ।


भावार्थ  –

वह (सृष्टिकर्ता ब्रह्म ही) हमारे पालक (व) जन्म देने वाले (हैं) वह ही (हम) सबको प्रेम में बांधने वाले मित्र (हैं), (जो) समस्त सामर्थ्यों, स्थानों, नामों और मूल कारणों को (और) समस्त लोंको, पदार्थों  को जानते है । जो (स्वयं) समस्त देवों के नामों को (भी सर्वगुण सम्पन्न होने के कारण) धारण करने वाला एक ही है । उत्तम रीति से प्रश्न पूछने के लिए उस को (ज्ञानी जन को) ही समस्त लोक और समस्त भूत वर्ग जाते हैं  ।


17.    ईश्वर के साथ हमारा जन्मदाता और संतान जैसा स्नेह और विश्वास का संबंध है- मन्त्र-2

आ ते वत्सो मनो यमत्परमश्चित्सधस्यात् ।  अग्ने त्वांम् कामये गिरा ।।

सामवेद-प्रपाठक-1 दशति-1 - मंत्र-8


संधि विच्छेद के बाद -

आ ते वत्सो मना  यमत् परमात्  चित् सधस्यात् ।  अग्ने त्वांम् कामये गिरा ।।


शब्दार्थ -

वत्स – पुत्र, ते – तेरे, मन - मनन करने योग्य, सत्य ज्ञान, परमात् – परम् उत्कृष्ट, चित् सधस्यात्  - स्थान से, आ यमत् - वश करते हैं या प्राप्त करते हैं, अग्ने - अग्नि देव, त्वांम् -तुझे ही, गिरा कामये - चाहते हैं ।


भावार्थ  –

(हम) (तेरे) पुत्र तेरे मनन करने योग्य (सत्य ज्ञान को), परम् उत्कृष्ट स्थान से (हृदय से) (स्तुति करके) प्राप्त करते हैं, (हे) अग्नि देव, (हम) तुझे ही चाहते हैं ।


18.  ईश्वर केवल शुभ हैं कोई अशुभ शक्ति नहीं होती

कया नश्चित्रऽ आ भुवदूती सदावृधः सखा । कया शचिष्ठया वृता ।।

यजुर्वेद- अध्याय-36 - मंत्र- 4


संधि विच्छेद के बाद –

कया न चित्रः आ भुवत्  ऊती सदावृधः सखा । कया शचिष्ठया वृ॒ता ।।


शब्दार्थ –

सदावृधः - सदा से महान, सदा बढ़ने वाला अर्थात कभी न्यूनता को नहीं प्राप्त हो, चित्रः – आश्चर्य कारक, आश्चर्य रूप गुण कर्म स्वभावों से युक्त परमेश्वर, नः - हम सबके, कया - कल्याणमय, ऊती -रक्षण आदि क्रिया, सखा -मित्र, आ भुवत् - चारों ओर विद्यमान हैं, शचिष्ठया -अत्यन्त शुभ शक्ति से, कया - कल्याणमय, वृता -वर्तमान, आवर्तन के द्वारा चारोँ ओर विद्यमान ।


भावार्थ  –

सदा से महान आश्चर्य रूप गुण कर्म स्वभावों से युक्त (परमेश्वर) हम सबके कल्याणमय रक्षण (के लिए), मित्र (की तरह) चारों ओर विद्यमान हैं, (वे) अत्यन्त शुभ शक्ति से कल्याणमय आवर्तन के द्वारा चारों ओर विद्यमान (हैं) ।


19.   ईश्वर केवल शांति कारक हैं

द्यौः शन्तिरन्तरिक्षं  शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः ।

वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवा शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ।।

यजुर्वेद- अध्याय-36 - मंत्र- 17


संधि विच्छेद के बाद –

द्यौः शान्तिःअन्तरिक्षम् शान्तिः पृथिवी शान्तिःआपःशान्तिःओषधयः शान्तिः ।

वनस्पतयः शान्तिः विश्वे देवाः शान्तिः ब्रह्म शान्तिःसर्वम् शान्तिः शान्तिः एव शान्तिः सा मा शान्तिः एधि ॥


शब्दार्थ –

द्यौः -प्रकाश युक्त पदार्थ, द्युलोक,  शान्तिः –शांति कारक , अनरक्षिम् -दोनों लोक के बीच का आकाश, शान्तिः – शांति कारक,  पृथिवी –भूमि, पृथिवी लोक,  शान्तिः – शांति कारक , आपः -जल वा प्राण, शान्तिः – शांति कारक , ओषधयः -सोम लता आदि औषधियां, शान्तिः – शांति कारक, वनस्पतयः -वट आदि वनस्पति, शान्तिः –शांति कारक ,  विश्वे –सब, देवाः - प्रकृति के ये सभी देव, विद्वान लोग, शान्तिः – शांति कारक , ब्रह्म –परमेश्वर वा ज्ञान, शान्तिः –शांति कारक , सर्वम् -सम्पूर्ण पदार्थ, शान्तिः –शांति कारक , शान्तिः  - शान्ति, एव –भी, शान्तिः - शांति कारक , सा –वह, शान्तिः – शांति, एव –ही, मा –मुझको, एधि -प्राप्त होवे ।


भावार्थ  –

हे मनुष्यों ! प्रकाश युक्त द्युलोक शांति कारक (होवे), दोनों लोक के बीच का आकाश शांतिकारी (होवे), पृथिवी लोक शांति कारक  (होवे), जल शांति कारक  (होवे), सभी औषधियां शांति कारक  (होवे), सभी वनस्पतियां शांति कारक  (होवे),  सब प्रकृति के ये देव शांति कारक  (होवे), परमेश्वर शांति कारक  (होवे), सम्पूर्ण पदार्थ शांति कारक  (होवे), शान्ति भी शांति कारक  (होवे), वह शान्ति ही मुझको प्राप्त होवे ।


20.  सत्य को हमेशा स्वीकार किया जाये और असत्य को अस्वीकार

दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापतिः अश्रद्धामनृतेदधाच्छ्रुद्धांसत्ये प्रजापतिः ।

ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपानंशुक्र्मन्धसऽ इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोमृतं मधु ।।

यजुर्वेद- अध्याय-19 - मंत्र-77


संधि विच्छेद के बाद –

दृष्ट्वा रूपे वि आ अकरोत्   सत्य अनृते   अश्रद्धाम्  अनृते अदधात्  श्रद्धाम्   सत्ये प्रजापतिः ।

ऋतेन सत्यम्    इन्द्रियम्  विपानम्  शुक्र्म् अन्धसः इन्द्रस्य इन्द्रियम् इदम् पयः अमृतम्  मधु ।।


शब्दार्थ –

प्रजापतिः -सृष्टिकर्ता परमेश्वर, सत्य - सत्य, अनृते - असत्य, रूपे - निरूपण किये हुए, दृष्ट्वा - ज्ञान दृष्टि से भली प्रकार विचार करके,  वि आ अकरोत् - पृथक-पृथक करता है, अनृते  - असत्य में, अश्रद्धाम् - अप्रीति, अदधात् - स्थापित करता, सत्ये -सत्य में,  श्रद्धाम् - प्रीति, प्रजापतिः -सृष्टिकर्ता परमेश्वर, अन्धसः - अंधकार हटाने वाले, शुक्र्म् -शुद्धि करने वाले, विपानम् - प्रजा का विशेष पालक, ऋतेन - यथार्थ सत्य-विज्ञान से,  सत्यम् - सत्य स्वरूप, इन्द्रियम् -चित्त को, इन्द्रस्य - परम ऐश्वर्य युक्त धर्म के संस्थापक के, इन्द्रियम् -चित्त को,  इदम् -इस, पयः -पुष्टि कारक दूध के समान, अमृतम् - मृत्यु रोग निवारक,  मधु - मानने योग्य  ।


भावार्थ  –

सृष्टिकर्ता परमेश्वर  सत्य असत्य निरूपण किये हुए ज्ञान दृष्टि से भली प्रकार विचार करके पृथक- पृथक करता है, सृष्टिकर्ता परमेश्वर  असत्य में अप्रीति स्थापित करता, सत्य में प्रीति । अंधकार हटाने वाले शुद्धि करने वाले, प्रजा का विशेष पालक, यथार्थ सत्य से, सत्य स्वरूप चित्त को परम ऐश्वर्य युक्त धर्म के संस्थापक के चित्त को इस पुष्टि कारक दूध के समान मृत्यु रोग निवारक (सृष्टिकर्ता परमेश्वर) मानने (उपासना करने) योग्य है


21.  वेद  सभी  मनुष्यों  की समानता का आदेश देते हैं- मन्त्र-1

समानि प्रपा स वोऽन्नभाग: समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि ।

सम्यञ्चोऽग्निं सपर्यतारा नाभिमिवाभित: ॥

अथर्ववेद- कांड-3 सूक्त-30 - मंत्र- 6


संधि विच्छेद के बाद –

समानि प्रपा वः अन्नभागः समाने योक्त्रे सह वः युनज्मि ।

सम्यञ्च: अग्निम् सपर्यत अरा नाभिम् इव अभितः ॥


शब्दार्थ –

समानी -एक, प्रपा – जल पीने का स्थान, वः - तुम लोगों का, अन्नभागः - अन्न का भाग, सह  -साथ साथ, समाने –एक, योक्त्रे   - बन्धन में, वः - तुम लोगों को, सह -साथ साथ, युनज्मि -जोड़ता हूँ । इव  - जैसे, नाभिम् अभितः अरा -नाभि में चारों और चक्र के अरे जड़े होते हैं, सम्यञ्च: -मिल जुलकर, अग्निम्  –उस प्रभु का, सपर्यत -पूजन व अग्रिहोत्र करो ।


भावार्थ –

(हे मनुष्यों !) एक (हो) (तुम लोगों का) जल पीने का स्थान, तुम लोगों का अन्न का भाग (भी) साथ साथ (हो), एक (ही) न्धन में (मैं) तुम लोगों को साथ साथ जोड़ता हूँ । जैसे नाभि में चारों ओर चक्र के अरे जड़े होते हैं (उस नाभि के चारों ओर अरों के समान) मिल जुलकर (एक ही फल की अभिलाषा में) उस प्रभु का (एक केंद्र की तरह एक सृष्टिकर्ता परमेश्वर ब्रह्म का) पूजन व अग्रिहोत्र करो ।


22.  वेद  सभी  मनुष्यों  की समानता का आदेश देते हैं- मन्त्र-2

सं गच्छध्वं सं वंदध्वं सं वो मनांसि जानताम् । देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।।

ऋग्वेद- मण्डल -10 सूक्त-191  - मंत्र-2


संधि विच्छेद के बाद –

सम  गच्छध्वं सम वदध्वं सम वः मनांसि जानताम् । देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।।


शब्दार्थ –

सम – समान रूप से, गच्छध्वम् -चलो, सम – समान रूप से, वदध्वम् -संवाद करो, वः –तुम्हारे, मनांसि -मन, जानताम् -संज्ञानवाले, पूर्वे - पालन व  पूरण करने वाले, देवाः -देव, दिव्य शक्तियां, संजानानाः – संज्ञान वाले, यथा - उचित रूप से, भागम् –भाग, हिस्सा, उपासते - उपासना करते हैं ।


भावार्थ  –

(ईश्वर अपने पुत्रों को कहते हैं कि) (तुम) समान रूप से (परस्पर मिलकर के) चलो (जिससे तुम्हारी गतियाँ परस्पर विरुद्ध न हों) (तुम) (परस्पर)  समान रूप से संवाद करो, तुम्हारे मन (दूसरों के प्रति) संज्ञानवाले हों । (ठीक उसी तरह जैसे कि) पालन व पूरण करने वाले (सृष्टि के बारे में) संज्ञान वाले दिव्य शक्तियां उचित रूप से (अपने) भाग (के अनुसार) (अपने कर्त्तव्य की) उपासना करते हैं ।


23.  सारी सृष्टि को अपने जैसा एक मानने से ही शोक और मोह से मुक्ति मिल सकती है

यस्मिन्त्सर्वाणी यस्मन्ति्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः ।

तत्र को मोहः कः शोक ऽएकत्वमनुपश्यतः ।।

यजुर्वेद- अध्याय-40 - मंत्र-7


संधि विच्छेद के बाद –

यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मा एव अभूत विजानतः ।

तत्र कः मोहः कः शोकः एकत्वम् अनुपश्यतः॥


शब्दार्थ –

पदार्थः हे मनुष्यों! यस्मिन् –जब, विजानतः - विशेष ज्ञान दृष्टि से देखने वाले आत्मज्ञानी पुरुष को, सर्वाणि –सब, भूतानि –प्राणी मात्र, आत्मा – अपने तुल्य, एव - ही, अभूत् - हो जाते हैं, तत्र – वहां, एकत्वम् - एक होने के भाव को देखने वाले को, अनुपश्यतः - देखने वाले को, कः –कौन, मोहः – मोह, कः –कौन, शोकः -शोक वा क्लेश होता है ।


भावार्थ  –

हे मनुष्यों ! जब (ब्रह्मज्ञान की दशा में) विशेष ज्ञान दृष्टि से देखने वाले आत्मज्ञानी पुरुष को सब प्राणी मात्र अपने तुल्य ही हो जाते हैं वहां (उस दशा में), एक होने के भाव को देखने वाले को, कौन मोह (और) कौन शोक वा क्लेश होता है (अर्थात ऐसी स्थिति में व्यक्ति मोह एवं शोक से परे हो जाता है) ।


24.   स्त्रियों को हमेशा से स्वतंत्रता से बोलने का अधिकार है

अहं वदामि नेत् त्वं सभायामह त्वं  वद ।

ममेदसस्त्वं केवलो नान्यासां कीर्तयाश्चन ॥

अथर्ववेद- कांड-7 सूक्त-39 - मंत्र- 4


संधि विच्छेद के बाद –

अहं वदामि न इत् त्वम् सभायाम् अह त्वम् वद् ।

मम इत् असः त्वम्  केवलो न अन्यासाम् कीर्तयः च न ॥


शब्दार्थ –

अहम् – मैं,  वदामि –बोलूं,  न -मत, इत् – यहां, त्वम् - तुम, अह -और, सभायाम् –सभा में,  त्वम् -तुम, वद् -बोलो, त्वम् - तुम, इत् – यहां, केवलो – केवल, मम - मेरे, असः -रहो, अन्यासाम् -अन्य का, न - नहीं, च – और,  न –मत, कीर्तयः -नाम लेना ।


भावार्थ –

(हे स्वामिन !) (जब) मैं (घर में) बोलूं (तब) तुम यहां मत (बोलो) और (बाद में) (विद्वानों की) सभा में तुम बोलो (अपनी अभिलाषा और योग्यता प्रकट करो), (कामना है कि) तुम यहां केवल मेरे (ही होकर) रहो (उसके बाद) अन्य (स्त्रियों) का नहीं और मत नाम (भी)  लेना ।


25.  स्त्रियों को ईश्वर की पूजा स्वयं करने का अधिकार है

संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति ।

वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ।।

अथर्ववेद- कांड-20 सूक्त-126 - मंत्र- 10


संधि विच्छेद के बाद –

सम् होत्रम् स्म पुरा नारी समनम् वाव गच्छति ।

वेधा ऋतस्य वीरिणी इन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मात् इन्द्रः उत्तरः ।।


शब्दार्थ –

पुरा - प्राचीन काल से, नारी -पत्नी, होत्रम् -यज्ञ के प्रति, सम्  -मिलकर, गच्छति स्म -जाती थी, वाव -निश्चय से, समनम् -युद्ध के प्रति जाती थी । ऋतस्य वेधा -सब यज्ञों व श्रेष्ठतम (ठीक) कार्यों का विधान करती थी । वीरिणी -वीर सन्तानों वाली, इन्द्रपत्नी -जितेन्द्रिय पुरुष की पत्नी, महीयते -महिमा को प्राप्त करती है । इन्द्रः -परमैश्वर्यशाली प्रभु, विश्वस्मात् उत्तरः -सबसे उत्कृष्ट हैं । 


भावार्थ –

प्राचीन काल से, पत्नी यज्ञ के प्रति (पति के साथ) मिलकर जाती थीं, (तथा) निश्चय से युद्ध के प्रति जाती थीं । (यह पत्नी घर में) सब यज्ञों (ईश्वर कि पूजा का) व श्रेष्ठतम (ठीक) कार्यों का विधान (सञ्चालन व मार्गदर्शन) करती थीं । (यह) वीर सन्तानों वाली, जितेन्द्रिय पुरुष की पत्नी महिमा को प्राप्त करती हैं । (इनकी दृष्टि में) परमैश्वर्यशाली प्रभु सबसे उत्कृष्ट हैं (ये इस इन्द्र का ही पूजन करती हैं) ।


26.  सरल मार्ग से जीना चाहिए

ऋजुनीती नो वरुणो मित्रो नयतु विद्वान् । अर्यमा देवै: सजोषा:।।

ऋग्वेद- मण्डल -1 सूक्त-90 - मंत्र- 1


संधि विच्छेद के बाद –

ऋजु नीती न: वरुंण: मित्रः नयतु  विद्वान् अर्यमा देवै:। सऽजोषा: ।। 


शब्दार्थ –

देवै: - दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव से, सजोषा: - समान प्रीति करने वाले, मित्र: - सबके उपकारी, अर्यमा - संयमित और न्याय करने वाले, विद्वान् – ज्ञानी, वरुणः- अपने-हृदय से द्वेष का निवारण करने वाले श्रेष्ठ व्यक्ति, ऋजु नीती - सरल मार्ग से, नः- हमें, नयतु – ले  चलें ।


भावार्थ  –

दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव से समान प्रीति करने वाले सबके उपकारी संयमित और न्याय करने वाले ज्ञानी अपने हृदय से द्वेष का निवारण करने वाले श्रेष्ठ व्यक्ति हमें सरल मार्ग से ले चलें ।

  

27.  जीवन में कर्म तथा परिश्रम से ही यश मिलता है

अस्मान्त्सु तत्र चोदयेन्द्र राये रभस्वत:।

तुविद्युम्न यशस्वत: ।।

ऋग्वेद- मण्डल -1 सूक्त-9 - मंत्र- 6


संधि विच्छेद के बाद -

अस्मान्  सु तत्र चोदय इन्द्र राये रभस्वत: ।

तुविऽद्युम्न यशस्वत: ।।


शब्दार्थ –

तुविद्युम्न - प्रभूत ऐश्वर्य युक्त,  इन्द्र - परमैश्वर्यशाली अन्तर्यामी ईश्वर, रभस्वत: - आलस्य त्याग कर कुछ प्राप्त करने के लिए कार्यों को आरम्भ करके, यशस्वत: -सत्कीर्ति सहित, अस्मान् -हम लोग,  तत्र - वहाँ, राये - वैभव ,उत्तम धन, सु – उत्तमता से, चोदय - प्रेरित करें ।


भावार्थ  –

हे प्रभूत ऐश्र्वर्य युक्त परमैश्वर्यशाली अन्तर्यामी ईश्वर ! हम लोग वहाँ आलस्य त्याग कर कुछ प्राप्त करने के लिए उत्तमता से कार्यों को आरम्भ करके सत्कीर्ति सहित वैभव (प्राप्त करें) (इसके लिए) प्रेरित करें ।


28.  संयम से जीना चाहिए 

सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेभीशुभिर्वाजिनऽइव ।

हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं  जरिं जविष्ठं तन्मे मनः शिव सङ्कल्पम् अस्तु ।। 

यजुर्वेद- अध्याय-34 - मंत्र-6


संधि विच्छेद के बाद –

सु॒षारथिः अश्वान् इव यत्  मनुष्यान् नेनीयते ।

अभीशुऽभिः वाजिनः इव हृत्प्रतिष्ठम् यत् अजिरम् जविष्ठम् तत् में मनः शिवसङ्कल्पम अस्तु ॥


शब्दार्थ – 

इव –जैसा, अश्वान् - घोड़ों को,  सुषारथिः - उत्तम सारथि सब ओर चलाता है, यत् –जो, मनुष्यान् -मनुष्यादि प्राणियों को,

नेनीयते -शीघ्र-शीघ्र इधर-उधर घुमाता है, इव –जैसा, वाजिनः -वेग वाले शक्तिशाली को, अभीशुभिः - लगामों से वश में करता है, यत् –जो, हृत्प्रतिष्ठम् -हृदय में स्थित, अजिरम् - अत्यन्त क्रियाशील वृद्धादि अवस्था रहित, जविष्ठम् - अत्यन्त वेगवान, तत् –वह, में –मेरा, मनः –मन, शिव – मङ्गलमय, सङ्कल्पम् - नियम में दृढ, अस्तु –होवे । 


भावार्थ  –

जैसा घोड़ों को उत्तम सारथि सब ओर चलाता है, जो (मन) मनुष्यादि प्राणियों को शीघ्र-शीघ्र इधर-उधर घुमाता है (और) वेग वाले शक्तिशाली जैसा को लगामों से वश में करता है, हृदय में स्थित जो (मन) अत्यन्त क्रियाशील, वृद्धादि अवस्था रहित (और) अत्यन्त वेगवान (है), वह मेरा मन मङ्गलमय नियम (संयम नियम) में दृढ (कल्याणकारी-श्रेष्ठ विचारों से युक्त) होवे ।


29.  लोभ का त्याग करना चाहिए

ईशा वास्यमिदं  सर्वं यात्किं च जगत्यां जगत् ।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विदवनम् ।।

यजुर्वेद- अध्याय-40 - मंत्र- 1


संधि विच्छेद के बाद –

ईशा वास्यम् इदम सर्वम् यत् किंच जगत्याम् जगत् ।

तेन त्यक्तेन भु॒ञ्जीथाः मा गृ॒धः कस्यस्वित् धनम् ॥


शब्दार्थ –

जगत्याम् -प्राप्त होने योग्य विश्व में, यत् –जो, किंच – कुछ भी, जगत् – संसार की सृष्टि, इदम् – यह, सर्वम् –सब, ईशा -संपूर्ण ऐश्वर्य से युक्त सर्वशक्तिमान परमात्मा से, वास्यम् – रहने, सब ओर से आच्छादन करना करने योग्य, सब ओर से व्याप्त होने योग्य, वसने योग्य, तेन –उससे, उसने, उस कारण से,  त्यक्तेन - दिए हुये से,  त्याग भाव रखते हुए,  त्याग भाव से,  भुञ्जीथाः -भोगने का अनुभव कर, उपभोग कर, कस्यस्वित् – - किसी के, धनम् – धन, वस्तु मात्र, मा –मत, गृधः -अभिलाषा कर, लोभ कर, ।


भावार्थ  –

(हे मनुष्य !) इस सृष्टि में जो कुछ भी (जड़ अथवा चेतन) है, वह सब ईश द्वारा आच्छादित है (उसी के अधिकार में है) । केवल उसके द्वारा (उपयोगार्थ) छोड़े गए (सौपें गए) का ही उपयोग करो । (अधिक का) लालच मत करो, (क्योंकि यह) धन किसका है ? (अर्थात किसी व्यक्ति का नहीं केवल ईश का ही है) ।


30. अतिथि सत्कार करना चाहिए

एष वा अतिथिर्यच्छ्रोत्रियस्तस्मात् पूर्वो नाश्नीयात् ।। 

अशितावत्यतिथावश्नीयाद्  यज्ञस्य सात्मत्वाय यज्ञस्याविच्छेदाय तद् व्रतम् ।। 

अथर्ववेद- कांड-9 सूक्त-8-मन्त्र-7,8


संधि विच्छेद के बाद –

एषः वै अतिथिः यत् श्रोत्रियः तस्मात् पूर्वः न अश्नीयात् ।

अशितावति अतिथौ अश्नीयात् यज्ञस्य सात्मत्वाय यज्ञस्य  अविच्छेदाय तद् व्रतम् ।


शब्दार्थ –

एषः –यह, अतिथिः –अतिथि, वै - निश्चय से, यत् – जो, श्रोत्रियः –वेद के विद्वान् पूजनीय है, तस्मात् –इस लिये, पूर्वः –पहले,  न – न, अश्नीयात् -भोजन करे ।  यज्ञस्य -यज्ञ के, सात्मत्वाय -सम्पूर्ण सफल करने, यज्ञस्य -यज्ञ के, अविच्छेदाय –विच्छेद या विनाश न होने देने के लिये, अतिथौ -अतिथि के, अशितावति -भोजन कर चुकने पर, अश्नीयात् –भोजन करे । तत् –यही, व्रतम् -व्रत कर ले । 

 

भावार्थ –

यह अतिथि (ही) निश्चय से जो वेद के विद्वान् पूजनीय है, इस लिये (अतिथि से) पहले कभी न भोजन करे । यज्ञ के सम्पूर्ण सफल करने (और) यज्ञ के विच्छेद या विनाश न होने देने के लिये अतिथि के भोजन कर चुकने पर गृहस्थ स्वयं भोजन करे । यही व्रत कर ले (यही धर्माचरण है) । 


31. परिवार में प्रेममय संबंध होना चाहिए

अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः ।

जाया पत्ये  मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम् ॥

अथर्ववेद- कांड-3 सूक्त-30 - मंत्र- 2


संधि विच्छेद के बाद –

अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः ।

जाया पत्ये  मधु  मतीम् वाचं वदतु शन्तिवाम् ॥


शब्दार्थ –

पुत्रः –पुत्र, पितुः -पिता के, अनुव्रतः - अनुकूल कर्म करने वाले, आज्ञाकारी, मात्रा -माता के साथ, सम् -अनुकूल, मनाः – विचार वाला, भवतु -रहे । जाया – पत्नी, पति के लिये मधु मतीम् - मधुर, कल्याण युक्त वाणी बोले ।


भावार्थ –

पुत्र अपने पिता के अनुकूल कर्म करने वाले (हों) (और अपनी) माता के साथ अनुकूल विचार वाला रहे। पत्नी अपने पति के लिये मधुर, कल्याण युक्त वाणी बोले ।


32.  परिवार में प्रेम और एकता होना चाहिए

मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा

संयन्चः संव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया

अथर्ववेद- कांड-3 सूक्त-30 - मंत्र- 3


संधि विच्छेद के बाद –

मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षत् मा  स्वसारम् उत स्वसा ।

संयन्चः स व्रताः भूत्वा वाचं वदत भद्रया ॥


शब्दार्थ –

भ्राता -भाई, भ्रातरं -भाई से, मा -न, द्विक्षत् -द्वेष करे, उत -और, स्वसा -बहिन, स्वसारम् -बहिन से, मा –न । सम्यञ्चः - समान गति वाले, एकत्र होकर, स व्रताः -एक दूसरे के अनुकूल एक चित्त और एक ही उद्देश्य में, भूत्वा -होकर, भद्रया -कल्याण और सुख प्रद, वाचं -वाणी का, वदत -उत्तर दो ।


भावार्थ –

भाई भाई से द्वेष न करे और बहिन बहिन से द्वेष नहीं करे । (हे प्रजा जनो) (सब) एकत्र होकर एक दूसरे के अनुकूल एक चित्त और एक ही उद्देश्य में होकर कल्याण और सुख प्रद (वाणी से) (एक दूसरे की) वाणी का उत्तर दो ।


33. पति पत्नी को प्रगाढ़ स्नेह और एक जैसे विचार वाले होकर जीवन जीना चाहिए

अक्ष्यै नौ मधुसंकाशे अनींक नौ समंजनम् ।

अन्तः कृणुष्व मां हृदि मन इन्नौ सहासति ।। 

अथर्ववेद- कांड-7 सूक्त-37-मन्त्र-1


संधि विच्छेद के बाद –

अक्ष्यै नौ मधु संकाशे अनीकम् नौ सम् अन्जनम ।

अन्तः कृणुष्व माम् हृदि मनः इत्  नौ सह असति ।।


शब्दार्थ – 

नौ - हम दोनों की, हमारी, अक्ष्यौ - आँखें, मधु -मधुर मधु, संकाशे -अमृत से सिंची हों । नौ - हम दोनों का, हमारा, सम्-अन्जनम - एक दृष्टिकोण हो, अनीकम् -सुख पूर्ण, जीवन दायक हो । माम्  -मुझको, अन्तः -भीतर, हृदि -हृदय में, कुणुष्व -रख ले, स्थान दे, नौ -हम दोनों का, मनः –मन, इत् -भी, निश्चय से, सह –साथ, असति -रहे ।


भावार्थ –

हम (पति और पत्नी) दोनों की आँखें मधुर मधु (के समान प्रेममय) अमृत से सिंची हों । हम दोनों का एक दृष्टिकोण हो, सुख पूर्ण हो । (हे प्रियतम) मुझको (तू) भीतर हृदय में रख ले (और) हम दोनों का मन निश्चय से (सदा) साथ रहे ।


34. वेद पत्नी को परिवार की महारानी की तरह रहने की शिक्षा देते हैं

सम्राज्ञ्येधि श्वशुरेषु सम्राज्ञ्युत देवृषु  । ननान्दुः सम्राज्ञ्येधि सम्राज्ञ्युत श्वश्र्वाः।।

अथर्ववेद- कांड-14 सूक्त-1 - मंत्र- 44


संधि विच्छेद के बाद –

सम्राज्ञी ऐधि श्वशुरेषु सम्राज्ञी उत देवृषु  । ननान्दुः सम्राज्ञी ऐधि सम्राज्ञी उत श्वश्र्वाः।।


शब्दार्थ –

श्वशुरेषु -पितृतुल्य बड़े लोगों की, सम्राज्ञी -सम्राज्ञी, महारानी, ऐधि -बन । उत -और, देवृषु -सब देवरों की भी, सम्राज्ञी -सम्राज्ञी, महारानी । ननान्दुः -ननदों की भी, सम्राज्ञी -सम्राज्ञी, महारानी, ऐधि -हो । उत -और, श्वश्र्वाः  -स्वश्रू  की भी, सम्राज्ञी -सम्राज्ञी, महारानी ।  


भावार्थ   –          

(तू) पितृतुल्य बड़े लोगों (श्वशुर आदि) की (भी) महारानी (शासनकर्त्री सी प्रिय) बन और सब देवरों में भी (तू) महारानी (शासनकर्त्री सी प्रिय)  (हो) । ननदों की भी (तू) महारानी (शासनकर्त्री सी प्रिय)  हो  और स्वश्रू  ( सास) की (भी) महारानी (शासनकर्त्री सी प्रिय)  (तू हो) ।   


35. वेद पत्नी को ज्ञान-विवेक से सब कार्य करने की शिक्षा देते हैं

भगस्त्वेतो नयतु हस्तगृह्याश्विना त्वा प्र वहतां रथेन ।

गृहान् गच्छ गृहपली यथासो वशिनी त्वं विदथमा वदासि ।।

अथर्ववेद- कांड-14 सूक्त-1 - मंत्र- 20


संधि विच्छेद के बाद –

भगः त्वा इतः नयतु हस्तगृह्य अश्विना त्वा प्र वहतां रथेन ।

गृहान् गच्छ गृह पत्नी यथा  असः वशिनी त्वम् विदथमा आवदासि ।।


शब्दार्थ –

भगः -ऐश्वर्य का उपार्जन करने वाला यह पति, हस्तगृह्य -पाणिग्रहण करके, त्वा -तुझे, इतः -यहां से, नयतु -ले जाएँ । अश्विना - धर्मपिता व धर्म माता, त्वा -तुझे, रथेन -रथ से, प्रवहताम् -ले जाने वाले हों । गृहान् -गृह को, गच्छ -जा । यथा -जिससे, गृह –गृह, पत्नी - पत्नी, असः -बन पाए । वशिनी -अपने सब इन्द्रियों को वश में करने वाली, त्वम् -तू, विदथम् - ज्ञान-विवेक पूर्वक, आवदासि -सब कार्य करने वाली । 


भावार्थ –

(पतिगृह को जाते समय पिता कन्या को उपदेश देता है कि) ऐश्वर्य का उपार्जन करने वाला यह पति पाणिग्रहण करके तुझे यहां (पितृगृह) से ले जाएँ । (ये तेरे) धर्मपिता व धर्म माता (स्वसुर और स्वश्रू) तुझे रथ से (पति के घर की ओर) ले जाने वाले हों । (तू) (पति) गृह को जा । जिससे (तू) (पतिगृह में) गृह पत्नी बन पाए । अपने सब इन्द्रियों को वश में करने वाली तू ज्ञान-विवेक पूर्वक सब कार्य करने वाली (हो) ।


36. कन्या के विवाह के पश्चात् विदा के समय का आशीर्वाद 

प्रबुध्यस्व सुबुधा बुध्यमाना दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ।

गृहान् गच्छ गृहपत्नी यथासो दीर्घं त आयुः सविता कृणोतु ।। 

अथर्ववेद- कांड-14 सूक्त-2-मन्त्र-75


संधि विच्छेद के बाद –

प्रबुध्यस्व सुबुधा बुध्यमाना दीर्घायुत्वाय शत शारदाय ।

गृहान् गच्छ गृह पत्नी यथा असः दीर्घं त आयुः सविता कृणोतु ।।    


शब्दार्थ –

प्रबुध्यस्व -तू प्रबुद्ध बोध वाली हो, सुबुधा -उत्तम बुद्धि वाली, बुध्यमाना -समझदार बन । शत -शत, शारदाय -वर्षों के, दीर्घायुत्वाय -दीर्घजीवन के लिए हो ।  गृहान् -गृह को, गच्छ -प्राप्त हो, जा, यथा -जिससे, गृहपत्नी -गृहपत्नी, असः -बने । सविता -वह सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक प्रभु, ते -तेरे, आयुः -आयुष्य को, दीर्घं -दीर्घ, कृणोतु –करे ।


भावार्थ –

(विवाह पश्चात् कन्या को आशीर्वाद व शिक्षा इस रूप में दी जाती है कि) तू प्रबुद्ध बोध वाली हो, उत्तम बुद्धि वाली (तू) समझदार बन । (इस प्रकार) (तू) शत वर्षों के दीर्घजीवन के लिए हो ।  (पति के) गृह को (तू) जा, जिससे (तू) गृहपत्नी बने । (तू वस्तुतः घर की उत्तमता से रक्षण करने वाली हो) । सर्वप्रेरक प्रभु तेरे आयुष्य को दीर्घ करें ।


37. वेद पति के मृत्यु के बाद पत्नी को आगे जीवन जीने की शिक्षा देते हैं, कोई सती प्रथा नहीं थी- मन्त्र-1

उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुपशेष एहि ।

हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ ॥

अथर्ववेद- कांड-18 सूक्त-3 - मंत्र- 2


संधि विच्छेद के बाद –

उदीर्ष्व नारि अभि जीवलोकं गतासुम् एतम् उपशेष एहि ।

हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ ॥


शब्दार्थ –

नारि -स्त्री, उदीर्ष्व -ऊपर उठ, जीवलोकम् अभि -इस जीवित संसार का ध्यान कर । गतासुम् -गतप्राण, दिवंगत, एतम् -इस के, उपशेष -समीप पड़ी है । एहि -आ, हस्तग्राभस्य -तेरे हाथ का ग्रहण करने वाले, दधिषोः -गर्भ में सन्तान को स्थापित करने वाले, तव -तेरे, पत्युः -पति की, इदं -इस, जनित्वम् –उत्पादित को, अभि -लक्ष्य करके, सम -सम्यक्तया, समदर्शी या संतुलित मन वाली, बभूथ -होने वाली हो ।


भावार्थ –

(हे) स्त्री (तू) ऊपर उठ (और घर के कार्यों में लग), इस जीवित संसार का (तू) ध्यान कर । (जो गये वे तो गये ही) (अब तू) दिवंगत इस (पति) के समीप पड़ी है । (इस प्रकार शोक में पड़े रहने का कोई लाभ नहीं है) आ (घर की ओर चल) । तेरे हाथ का ग्रहण करने वाले गर्भ में सन्तान को स्थापित करने वाले तेरे पति की इस उत्पादित (सन्तान) को लक्ष्य करके समदर्शी या संतुलित मन वाली हो (जिससे सन्तान के पालन-पोषण में किसी प्रकार से तू असमर्थ न हो जाए) ।


38. वेद पति के मृत्यु के बाद पत्नी को आगे जीवन जीने की शिक्षा देते हैं, कोई सती प्रथा नहीं थी- मन्त्र-2

अपश्यं युवतिं नीयमानां जीवां मृतेभ्य: परिणीयमानाम् ।

अन्धेन यत् तमसा प्रावृतासीत् प्राक्तो अपाचीमनयं तदेनाम् ॥

अथर्ववेद- कांड-18 सूक्त-3 - मंत्र- 3


संधि विच्छेद के बाद –

अपश्यं युवतिं नीयमानां जीवां मृतेभ्य: परिणीयमानाम् ।

अन्धेन यत् तमसा प्रावृता आसीत् प्राक्तः अपाचीम् अनयम् तत्  एनाम् ॥


शब्दार्थ –

जीवां - जीवन शक्ति से परिपूर्ण, युवतिम् - युवति को, नीयमानाम् -ले जाती हुई को, देखा है । मृतेभ्यः -मरे हुओं से, परिणीयमानाम्  -परे ले जायी जाती हुई को ।  यत् -क्योंकि यह,  तमसा -प्रकाशविहीन, अन्धेन -घने अंधकार से, प्रावृता – आवृत, आसीत् - थी,  तत् – अतः,  एनाम्  -इसको,  प्राक्तः -इस के पति सामने से, अपाचीम् अनयम्  -दूर प्राप्त कराता हूँ, ले आता हूँ, ले जाता हूँ ।


भावार्थ –

(मैंने) (इस) जीवन शक्ति से परिपूर्ण युवति को (पितृगृह से पतिगृह की ओर)  ले जाती हुई को देखा है । (आज उसी युवति को) मरे हुओं से परे ले जायी जाती हुई को (देखता हूँ) । क्योंकि यह (पति की मृत्यु से)  प्रकाशविहीन घने (शोक के) अंधकार से आवृत थी अतः इसको इस के पति से (शव के सामने से) दूर प्राप्त कराता हूँ (ले जाता हूँ )।


39. वेद प्रजातंत्रीय समाज का आदेश देते हैं

सभा च मा समितिश्चावतां प्रजापतेर्दुहितरैं संविदाने ।

येना संगच्छा उप मा स शिक्षाच्चारु वदानि पितरः सड्तेषु ।।

अथर्ववेद- कांड-7 सूक्त-13 - मंत्र- 1


संधि विच्छेद के बाद –

सभा च मा समितिः च मा  अवताम्  प्रजा पत्तेः दुहितरौ सम विदाने ।

येना सम्  गच्छा उप मा सः शिक्षात् चारु वदानि पितरः सङ्ग् तेषु ।। 


शब्दार्थ –

सभा –सभा, मा - मुझे,  च - और,  समितिः - समिति, च - भी,  मा - मुझे, प्रजापत्तेः  -प्रजापति (ब्रह्म) की, दुहितरौ -  कन्यायें, सम - परस्पर एक मत,  विदाने – होकर के, अवताम्  - रक्षण करें । येन -जिस किसी से, सम् गच्छै -मिलकर वार्तालाप करुं या सलाह लूं , सः -वह, मा -मुझको, उप शिक्षात् -मेरे समीप आकर ज्ञान प्राप्त कराएं । पितरः -विद्वान पुरुषों  राष्ट्र के पालन करने वाले, सङ्ग् तेषु -जब  एकत्र हों, चारु वदानि - खुले मन से अभिप्राय प्रकट करुं ।


भावार्थ –

(विद्वानों पदाधिकारियों की)  सभा मुझे (शासन कर्ता को) और (प्रजाओं के प्रतिनिधियों की) समिति भी  मुझे (शासन कर्ता को) प्रजापति (ब्रह्म)  की कन्यायों  (के समान) परस्पर एक मत होकर के रक्षण करें । (और हे सभासद के विद्वान पुरुषों ) (मैं) (आप लोगों में से) जिस किसी से मिलकर वार्तालाप करुं या सलाह लूं वह मुझको मेरे समीप आकर (मुझे अपने विभाग का) ज्ञान प्राप्त कराएं । (हे) विद्वान पुरुषों  राष्ट्र के पालन करने वालों (आप लोग) जब  एकत्र हों (तो आप लोगों के बीच में) ( मैं) खुले मन से (अपना) अभिप्राय प्रकट करुं ।


40. सृष्टिकर्ता ब्रह्म को समाधि द्वारा साक्षात् किया जा सकता है

यानि त्रीणि बृहन्ति  येषां  चतुर्थ वियुनक्ति वाचम् ।

ब्रह्मैनद्  विद्यात् तपसा विपश्चिद्  यस्मिनेकं  युज्यते यस्मिन्नेकम् ।। 

अथर्ववेद- कांड-8 सूक्त-9-मन्त्र-3


संधि विच्छेद के बाद –

यानि त्रीणि बृहन्ति  येषाम्  चतुर्थम् वियुनक्ति वाचम् ।

बह्म एनत् विद्यात्  विद्यात् तपसा विपश्चित् यस्मिन् एकम्  युज्यते यस्मिन् एकम् ।। 


शब्दार्थ –

यानि -जो, त्रीणि -तीन हैं, वृहन्ति -विशाल, बढ़ते हैं, येषाम् - जिनका, चतुर्थम् -चौथा, वाचम् - वेदमयी वाणी को, वियुनक्ति -प्रकट करता है । विपश्चित्  –कर्म और ज्ञानों के संचयी विद्वान् ब्रह्मवेत्ता, तपसा -अपने तप द्वारा, एनत् - उनको, बह्म -ब्रह्म, विद्यात् – जाने, यस्मिन् –जिस में, एकम् – एकमात्र, युज्यते - समाधि द्वारा साक्षात् किया जाता है, यस्मिन् - जिस में, एकम् –एक अद्वितीय है ।


भावार्थ –

जो तीन (प्रकृति के तीन गुण सत्व, रज और तम) हैं (जो इस चराचर संसार के रूप में) बढ़ते हैं जिनका चौथा (इन तीनों गुणों से बनी प्रकृति को धारण करने वाला प्रभु) वेदमयी वाणी को प्रकट करता है । कर्म और ज्ञान के संचयी विद्वान् ब्रह्मवेत्ता अपने तप द्वारा उनको ब्रह्म (ही) जानें, जिस में एकमात्र (वही ब्रह्म को) समाधि द्वारा साक्षात् किया जाता है, (और) जिस में एक (ब्रह्म ही) अद्वितीय है (ऐसा ही ज्ञान होता है) ।


41. वेदों में समाज रूपी विराट पुरुष का वर्णन- प्रश्न

यत् पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।

मुखं किमस्य किं बाहू किमूरु पादा उच्येते ।। 

अथर्ववेद- कांड-19 सूक्त-6-मन्त्र-5


संधि विच्छेद के बाद –

यत् पुरुषम् व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।

मुखं किम् अस्य  किम्  बाहू किम् उरु पादा उच्येते ।। 


शब्दार्थ –

यत् -जब, पुरुषम् -उस परमपुरुष प्रभु को, व्यदधुः -अपने में विशेष रूप से धारण करते हैं, कतिधा -कितने प्रकार से, व्यकल्पयन् -अपने को विशिष्ट सामर्थ्य वाला बनाते हैं । अस्य -इस का, मुखं -मुख, किम् -क्या, बाहू -बाहुएँ, किं -क्या किम् –क्या, उच्येते -कही जाती हैं , उरु - जांघें, किम् -क्या, पादाः -पाँव, किम् -क्या, उच्येते -कहे जाते हैं ।


भावार्थ –

जब उस परमपुरुष प्रभु को अपने में विशेष रूप से धारण करते हैं, (तब वे) कितने प्रकार से अपने को विशिष्ट सामर्थ्य वाला बनाते हैं । इस का मुख क्या (है) ? (इसकी) बाहुएँ क्या कही जाती हैं ? जांघें क्या (हैं) ? (और इसी प्रकार) (इसके) पाँव क्या कहे जाते हैं ? (अर्थात समाज रूपी विराट पुरुष के शरीर के भागों के कर्म विभाजन का समाज के कर्म विभाजन के साथ रूपक देकर बताया जा रहा है) ।


42. वेदों में समाज रूपी विराट पुरुष का वर्णन- उत्तर

ब्रह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्योऽभवत् ।

मध्यं तदस्य यद् वैश्यः पद्धयां शूद्रो अजायत ।। 

अथर्ववेद- कांड-19 सूक्त-6-मन्त्र-6


संधि विच्छेद के बाद –

ब्रह्मणः अस्य मुखम् आसीत्  बाहूः राजन्यः अभवत् ।

मध्यम् यत् अस्य यद् वैश्यः पद्धभ्याम्  शूद्रः अजायत ।। 


शब्दार्थ –

अस्य –इस का, मुखम् -मुख, ब्रह्मणः -ब्रह्मण, आसीत् -है, होता है, हो जाता है, बाहूः -भुजाएँ, राजन्यः -रञ्जन करने वाली, अभवत् -होती हैं । यत् -जो, अस्य -इसका, मध्यम् - मध्य वाला, तत् -वह, वैश्यः -वैश्य होता है, पद्धभ्याम् -पाँवों से, शूद्रः -(शु द्रवति) शीध्र गति वाले, अजायत -होते हैं, उत्पन्न होते हैं ।


भावार्थ –

इस (समाज) का मुख ब्राह्मण है (जो सदा शिक्षक-ब्राह्मण जैसा ज्ञानोपदेश में प्रवृत रहता है), (समाज की) भुजाएँ  (प्रकृति का, प्रजा का) रञ्जन करने वाली (बाहुएँ क्षत्रिय की तरह प्रजा का रक्षण करने वाली होती हैं) । जो इसका मध्य वाला (भाग) (उदर व जांघें, भोजन-शक्ति आदि देने वाले अंग) वह वैश्य (होता है) (समाज में वैश्य कृषि आदि के द्वारा सब आवश्यक पदार्थों को उत्पन्न करके समाज को भोजन-शक्ति आदि देते हैं) । पाँवों से (शूद्र) शीध्र गति वाले उत्पन्न होते हैं (जो समाज को आगे प्रगति के लिए गति देते हैं) (और यही समाज का कर्म विभाजन है) ।  

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